फूँक दे जो प्राण में उत्तेजना,
गुण न वह इस बाँसुरी की तान में;
जो चकित करके कॅंपा डाले हृदय,
वह कला पाई न मैंने गान में।
जिस व्यथा से रो रहा आकाश यह
ओस के आँसू बहाकर फूल में,
ढूँढ़ती उसकी दवा मेरी कला
विश्व-वैभव की चिता की धूल में!
कूकती असहाय मेरी कल्पना,
कब्र में सोये हुओं के ध्यान में;
खॅंडहरों में बैठ भरती सिसकियाँ
विरहणी कविता सदा सुनसान में।
हँस उठी कनक – प्रान्तर में
जिस दिन फूलों की रानी,
तृण पर मैं तुहिन – कणों की
पढ़ता था करुण कहानी।