Poem

रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 11

रामधारी सिंह दिनकर

\’तू ने जीत लिया था मुझको निज पवित्रता के बल से,
क्या था पता, लूटने आया है कोई मुझको छल से?
किसी और पर नहीं किया, वैसा सनेह मैं करता था,
सोने पर भी धनुर्वेद का, ज्ञान कान में भरता था।

\’नहीं किया कार्पण्य, दिया जो कुछ था मेरे पास रतन,
तुझमें निज को सौंप शान्त हो, अभी-अभी प्रमुदित था मन।
पापी, बोल अभी भी मुख से, तू न सूत, रथचालक है,
परशुराम का शिष्य विक्रमी, विप्रवंश का बालक है।

\’सूत-वंश में मिला सूर्य-सा कैसे तेज प्रबल तुझको?
किसने लाकर दिये, कहाँ से कवच और कुण्डल तुझको?
सुत-सा रखा जिसे, उसको कैसे कठोर हो मारूँ मैं?
जलते हुए क्रोध की ज्वाला, लेकिन कहाँ उतारूँ मैं?\’

पद पर बोला कर्ण, \’दिया था जिसको आँखों का पानी,
करना होगा ग्रहण उसी को अनल आज हे गुरु ज्ञानी।
बरसाइये अनल आँखों से, सिर पर उसे सँभालूँगा,
दण्ड भोग जलकर मुनिसत्तम! छल का पाप छुड़ा लूँगा।\’

परशुराम ने कहा-\’कर्ण! तू बेध नहीं मुझको ऐसे,
तुझे पता क्या सता रहा है मुझको असमञ्जस कैसे?
पर, तूने छल किया, दण्ड उसका, अवश्य ही पायेगा,
परशुराम का क्रोध भयानक निष्फल कभी न जायेगा।

\’मान लिया था पुत्र, इसी से, प्राण-दान तो देता हूँ,
पर, अपनी विद्या का अन्तिम चरम तेज हर लेता हूँ।
सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आयेगा,
है यह मेरा शाप, समय पर उसे भूल तू जायेगा।

रामधारी सिंह दिनकर

Author Bio

रामधारी सिंह 'दिनकर' हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। राष्ट्रवाद अथवा राष्ट्रीयता को

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